पूनम शुक्ला :मुख्य प्रबन्ध संपादक:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दूरी भी भाजपा को भारी पड़ी। राष्ट्रीय स्वयंसंघ और भाजपा का चोलीदामन का साथ रहा है।माना जाता है कि भाजपा की उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने और कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने में भी संघ की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में दोनों दूर-दूर रहे।
आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति स्वयंसेवकों में कोई नाराजगी नहीं है। लेकिन भाजपा ने इस बार संघ के सहयोग के बिना ही ‘अबकी बार 400 पार’ के लक्ष्य को हासिल करने का फैसला किया । 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस ने भाजपा उम्मीदवारों को जीताने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी । 2004 में आरएसएस ने अटल बिहारी वाजपेई सरकार के कई फैसलों के विरोध के कारण चुनाव प्रक्रिया से बाहर रहने का फैसला किया था।
एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार एक सामाजिक संगठन के नाते चुनाव के पहले आरएसएस ने प्रचार के लिए अपने-अपने क्षेत्र में प्रबुद्ध लोगों के साथ बैठक जरूर की। लेकिन सीधे तौर पर भाजपा को “अपना मत” देने का संदेश नहीं दिया। इसके बजाय उन्हें अपने क्षेत्र के अच्छे उम्मीदवारों को वोट देने को कहा गया। उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार दूसरे दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल करने और उन्हें टिकट देने में भी संघ की राय नहीं ली गई। यही नहीं, दूसरे दलों से आए 100 लोगों को टिकट भी दे दिया गया। ऐसे नेताओं के साथ क्षेत्र में सक्रिय स्वयंसेवकों का सम्यवन बनाना भी आसान नहीं हुआ।
पूरे देश में फैले आम लोगों के बीच सामाजिक व संपर्क कार्यों में लगे संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक चुनाव के दौरान पूरी तरह निष्क्रिय दिखे।वर्ष 2004 के चुनाव में आरएसएस के स्वयंसेवकों की ऐसी निष्क्रियता दिखाई दी थी, और इंडिया साइनिंग के नारे के बावजूद तब भाजपा को सत्ता से बाहर होना पड़ा था।